सैराब हो कभी ये ख़िलाफ़-ए-क़यास है अपनी नज़र को प्यास तो सहरा की प्यास है इस में है सारी हुस्न-ओ-मोहब्बत से दिलकशी ये ज़ीस्त वर्ना मौत ही का इक़्तिबास है ये देखने की शय नहीं महसूस कर इसे हर फूल के बदन पे हया का लिबास है मातम-कुनाँ है शिद्दत-ए-तूफ़ाँ की मौज मौज कश्ती मिरी डुबो के समुंदर उदास है यूँ लम्हा लम्हा छलके मिरा जाम-ए-ज़िंदगी बच्चे के हाथ जैसे लबालब गिलास है हर आदमी बनाता है क़िस्मत के ज़ाइचे हर आदमी यहाँ तो सितारा-शनास है अशआ'र क्यों न मेरे हों ख़ुशबू की खेतियाँ ऐ 'जान' ख़ाक-ए-पाक जो फ़न की असास है