मोहब्बत ख़ब्त है या वसवसा है मगर अपनी जगह ये वाक़िआ है जिसे हम वाहिमा समझे हुए हैं वो साया भी तिरी दीवार का है मकाँ सरगोशियों से गूँजते हैं अंधेरा रौज़नों से झाँकता है दर ओ दीवार चुप साधे हुए हैं फ़क़त इक आलम-ए-हू बोलता है मिरी आँखों पे ऐनक दूसरी है कि ये तस्वीर का रुख़ दूसरा है सुना है डूबने वाले ने पहले किसी का नाम साहिल पर लिखा है गुज़र किस का हुआ है जो अभी तक दो-आलम आइना-बरदार सा है ये दुनिया मिट गई होती कभी की मगर इक नाम ऐसा आ गया है मोहब्बत है 'रसा' मेरी इबादत ये मेरा दिल मिरा दस्त-ए-दुआ है