मोहब्बत में न जाँ को जाँ न दिल को दिल समझते हैं उसे आसाँ बनाते हैं जिसे मुश्किल समझते हैं हम अपनी ज़िंदगानी की तग़य्युर-ख़ेज़ राहों को कभी जादा समझते हैं कभी मंज़िल समझते हैं हमारा मक़सद-ए-अव्वल है जज़्ब-ए-शौक़-ओ-सर-मस्ती यही वो ज़िंदगी है जिस को हम कामिल समझते हैं तू अपने दिल की कमज़ोरी को समझा है न समझेगा वही मुश्किल में हैं मुश्किल को जो मुश्किल समझते हैं 'कलीम' अहल-ए-तकल्लुम की सुबुक बातों से क्यूँ उलझें हम अपनी ज़िंदगी को सहल या मुश्किल समझते हैं