मोहब्बत मुँह पे करना और दिल में बेवफ़ाई है ये आईना यहाँ कहता है कैसी आश्नाई है भला बोसा हम उस से आज माँगेंगे किसी ढब से तवक़्क़ो तो नहीं लेकिन ये तालए आज़माई है मुहिब्बों को करें हैं क़त्ल दुश्मन को जलाते हैं बुतों की भी मियाँ साहिब निराली ही ख़ुदाई है अजाइब रस्म है उन दिलबरान-ए-दहर की या रब किसी के साथ जा सोना कहीं साई बधाई है ये आशिक़ अपने अपने अश्क को तूफ़ान कहते हैं जो सच पूछो तो ये गंगा हमारी ही खुदाई है इलाही क्या बनेगी साथ मेरे शैख़-ओ-वाइज़ को इधर रिंदी शराबी है उधर को पारसाई है नहीं ये अब्र-ओ-बाराँ 'सोज़' के अहवाल को सुन कर फ़लक की भी मोहब्बत से ये अब छाती भर आई है