मोहब्बत मुझ से कहती थी ज़रा होश्यार दामन से जुनूँ आवाज़ देता था वो उलझे ख़ार दामन से मिरे अश्क-ए-मुसलसल राएगाँ होने नहीं देता बहुत नज़दीक रहता है ख़याल-ए-यार दामन से सँभल ओ रहरव-ए-राह-ए-तलब मंज़िल न खो जाए लिपटता है ग़ुबार-ए-राह ना-हमवार दामन से जबीं-साई कहाँ की किस का सज्दा कुछ जो क़ाबू हो छुपा कर बैठ जाऊँ आस्तान-ए-यार दामन से हवा देते रहे दानिस्ता दीवाना समझ कर वो जुनूँ होता रहा अक्सर मिरा बेदार दामन से उभरती जाती है दामन पे अश्क-ए-ख़ूँ की रंगीनी नुमायाँ होता जाता है नया गुलज़ार दामन से उसे तूफ़ाँ कहूँ या जान-ए-साहिल क्या कहूँ 'शाहिद' न उभरे जज़्ब हो कर अश्क-ए-दरिया-बार दामन से