मोहब्बत मुस्तक़िल कैफ़-आफ़रीं मालूम होती है ख़लिश दिल में जहाँ पर थी वहीं मालूम होती है तिरे जल्वों से टकरा कर नहीं मालूम होती है नज़र भी एक मौज-ए-तह-नशीं मालूम होती है नुक़ूश-ए-पा के सदक़े बंदगी-इश्क़ के क़ुर्बां मुझे हर सम्त अपनी ही जबीं मालूम होती है मिरी रग रग में यूँ तो दौड़ती है इश्क़ की बिजली कहीं ज़ाहिर नहीं होती कहीं मालूम होती है ये ए'जाज़-ए-नज़र कब है ये कब है हुस्न की काविश हसीं जो चीज़ होती है हसीं मालूम होती है उमीदें तोड़ दे मेरे दिल-ए-मुज़्तर ख़ुदा-हाफ़िज़ ज़बान-ए-हुस्न पर अब तक नहीं मालूम होती है उसे क्यूँ मय-कदा कहता है बतला दे मिरे साक़ी यहाँ की सर-ज़मीं ख़ुल्द-ए-बरीं मालूम होती है अरे ऐ चारा-गर हाँ हाँ ख़लिश तू जिस को कहता है ये शय दिल में नहीं दिल के क़रीं मालूम होती है किसी के पा-ए-नाज़ुक पर झुकी है और नहीं उठती मुझे 'बहज़ाद' ये अपनी जबीं मालूम होती है