मोहब्बतों का सिला नहीं है लबों पे हर्फ़-ए-दुआ नहीं है नहीं वो तस्वीर पास मेरे सो हाथ मेरा जला नहीं है मैं अपनी लौ में ही जल रही हूँ जो बुझ गया वो दिया नहीं है बस इक पियाली है मेज़ पर और वो मुंतज़िर अब मिरा नहीं है लिखा जनम-दिन पे उस को मैं ने वो ख़त भी उस को मिला नहीं है मैं किस लिए पार जाऊँ 'शाहीन' वहाँ मिरा ना-ख़ुदा नहीं है