मोहब्बतों के हसीं ख़्वाब जब से बुनने लगी फ़सुर्दगी मिरे दिल में क़ियाम करने लगी बिछड़ कि उस से अज़ीज़ान-ए-ग़म उदासी तो रगों में बर्फ़ की मानिंद मेरे जमने लगी ज़ियाँ की रुत में कभी सर से आसमाँ जो गया तिरे ख़ुलूस की चादर भी फिर सरकने लगी इक ऐसा दौर भी आया था राह-ए-वहशत में सदाएँ छोड़ के जब मैं सुकूत सुनने लगी अजीब रंज का आलम था पर ऐ हम-सफ़राँ मिरे क़रीब तिरी याद क्यों थिरकने लगी