शगुफ़्ता आज कुछ दिल की कली मा'लूम होती है बहार-ए-ख़ंदा-ए-गुल ज़िंदगी मा'लूम होती है वो मेरे दिल की कहते हैं मैं उन के दिल की कहता हूँ मोहब्बत इत्तिफ़ाक़-ए-बाहमी मा'लूम होती है मुकर जाएँ वो वा'दे से मुझे बावर नहीं आता ख़िलाफ़-ए-शान ख़ू ये हुस्न की मा'लूम होती है वही दिन हैं वही रातें वही हम है वही बातें मगर फिर भी किसी शय की कमी मा'लूम होती है नसीम आई बहार आई पयाम-ए-जाँ-फ़िज़ा लाई 'ख़याली' ज़िंदगी अब ज़िंदगी मा'लूम होती है