जानाँ गए दिनों का तअ'ल्लुक़ बहाल कर आईना बन गया हूँ मिरी देख-भाल कर अपनी ही रहगुज़र के बुझाता है क्यूँ चराग़ हर रास्ते से मेरा गुज़रना मुहाल कर इक रोज़ ऐसा हो कि चराग़ों के रू-ब-रू कुछ में हुनर करूँ कोई तू भी कमाल कर तहवील-ए-इंतिज़ार में कब तक रहेगी आँख मेरे सुपुर्द मेरी नज़र का मआ'ल कर डर है कहीं मैं दश्त की जानिब निकल न जाऊँ बैठा हूँ अपने पाँव में ज़ंजीर डाल कर 'मोहसिन' बुरे दिनों में नया दोस्त कौन हो है जिस का पहला क़र्ज़ उसी से सवाल कर