मुँह ज़ेर-ए-ताक खोला वाइज़ बहुत ही चूका बेलों ने दाढ़ी पकड़ी ख़ोशों ने मुँह में थूका कहता है क्यूँ अनल-हक़ जो क़तरा है लहू का मुँह खुल गया है शायद मेरी रग-ए-गुलू का शोख़ी जो बर्क़ की है गर्मी शरार की है कुछ कह रहा है मूसा अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू का धोना है वक़्त-ए-आख़िर मुँह की मुझे सियाही ऐ अश्क-ए-शर्म अब भी मौक़ा है शुस्त-ओ-शू का क्यूँ तिफ़्ल-ए-अश्क लिपटे ऐ दिल न आस्तीं से पर्वर्दा है ये मेरे दामान-ए-आरज़ू का साक़ी बहार दर-कफ़ फूल आए मय-कदे से तूफ़ान उठ रहा है गुलशन में रंग-ओ-बू का वाइज़ तुझे ख़बर है मय-ख़ाना किस का घर है ख़ुम उस की पुश्त पर है खुलवा न मुँह सुबू का मेरे बदन के रोएँ आवाज़ देंगे हू की सहरा में घर है मेरा घर है मक़ाम हू का यकसाँ है ख़ूँ-चकानी यकसाँ है ख़ूँ-फ़िशानी हैं एक दीदा-ओ-दिल ये जोश है लहू का समझे हैं ख़िज़्र जिस को सहरा-नवर्द-ए-उल्फ़त नक़्श-ए-फ़ना वो इक है वो पा-ए-जुस्तुजू का गर्दूं हबाब इस में ग़र्क़ आफ़्ताब इस में दिल की बिसात क्या है एक क़तरा है लहू का क्यूँ इतने ऊँचे जाएँ क्यूँ उल्टी मुँह की खाएँ आता है अपने मुँह पर जब आसमाँ का थूका दोनों बहुत हैं नाज़ुक उन नाज़नीं बुतों से अल्लाह है निगहबाँ ईमान-ओ-आबरू का अंगूर ही में उतरा क़िस्मत का आब-ओ-दाना मैं था इसी का प्यासा मैं था इसी का भूका मैं ऐ 'रियाज़' ख़ुश हूँ इक बोरिया ही मैं हूँ पहले जो ज़र्फ़-ए-मय था अब ज़र्फ़ है वुज़ू का