मुद्दई ख़ुद है ख़ून-ए-बिस्मिल की उफ़ वो नीची निगाह क़ातिल की तुम ने क्यों नाज़ से मुझे देखा अब मुझी पर नज़र है महफ़िल की मेरे रोने पे रो दिए वो भी बद-गुमानी निकल गई दिल की ऐ ज़हे दिल कि उन की ख़ल्वत में याद होती रही मिरे दिल की तुझ से मिलने से ऐ सरापा नाज़ वहशतें और बढ़ गईं दिल की ख़ाक छूटेगा इश्क़ अब 'मैकश' इब्तिदा ही बिगड़ गई दिल की