मुद्दत हुई है मदह-ए-हसीनाँ किए हुए नूर-ए-सुख़न से दिल को चराग़ाँ किए हुए अर्सा हुआ है वस्फ़-ए-बहार-ए-जमाल से रू-ए-वरक़ को रश्क-ए-गुलिस्ताँ किए हुए बरसों हुए हैं तज़किरा-ए-सोज़-ए-इश्क़ से बज़्म-ए-सुख़नवरी को दरख़्शाँ किए हुए आता है किस शिकोह से वो रश्क-ए-आफ़्ताब ज़ुल्मत-कदे दिलों के चराग़ाँ किए हुए जाता हूँ कू-ए-यार को देख ऐ घटा मुझे बरपा हुजूम-ए-अश्क से तूफ़ाँ किए हुए बैठे हैं हम तसव्वुर-ए-गेसू-ए-यार में इस ज़िंदगी को ख़्वाब-ए-परेशाँ किए हुए ख़ूँ कर के ले चला हूँ दिल-ओ-जाँ को अपने साथ दीदार-ए-रू-ए-यार का सामाँ किए हुए मर मिटिए इस अदा पे कि कुछ लोग जल-बुझे सीने में सोज़-ए-इश्क़ को पिन्हाँ किए हुए वो नौ-बहार-ए-हुस्न भी इस राह से गया हर नक़्श-ए-पा को रौज़ा-ए-रिज़वाँ किए हुए