मुद्दत से दर पे है मिरे ताला पड़ा हुआ मैं अपने घर से हूँ कहीं बाहर गया हुआ जो थी लकीर नूर की वो है मिटी हुई जो है चराग़ ताक़ में वो है बुझा हुआ बातें ख़याल-ओ-ख़्वाब की करता नहीं हूँ मैं देखा है मैं ने दश्त में दरिया पड़ा हुआ दोनों ही के मिज़ाज में तख़रीब थी बहुत उस का भला हुआ है न मेरा भला हुआ फिर उस के बाद आसमाँ तेरा बनेगा क्या मैं इस ज़मीं की क़ैद से जिस दिन रिहा हुआ बाग़-ओ-बहार भी हूँ मैं वीरान भी हूँ मैं ख़ुशियों के साथ साथ है ग़म भी लगा हुआ दीवार-ओ-दर से वहशतें जाती नहीं 'सहर' इक दश्त है मकान से मेरे मिला हुआ