मुद्दतों ख़ूब आज़माती है फिर मोहब्बत समझ में आती है रूप अपना उजालने के लिए ज़िंदगी धूप में नहाती है सब चराग़ों को डस चुकी आँधी एक दिन ख़ुद से हार जाती है सारा आलम दुहाई देता है रात जब दास्ताँ सुनाती है कोई मायूसियों को समझाए चाह ख़ुद रास्ता बनाती है कोई अन-बन हुई है गुलशन से क्यूँ 'सबा' लौट लौट जाती है