मुफ़्त दुश्नाम-ए-यार सुनते हैं एक कह कर हज़ार सुनते हैं तुम हिमायत करो न ग़ैरों की चार कहते हैं चार सुनते हैं हम फ़िदा-ए-चमन क़फ़स में भी ज़िक्र-ए-फ़स्ल-ए-बहार सुनते हैं कुछ तो है बात जो तिरे मुँह से सुख़न-ए-नागवार सुनते हैं आप और आएँ अपने वादे पर ऐसे फ़िक़रे हज़ार सुनते हैं उस से मिलने को दिल तड़पता है हम जिसे बे-क़रार सुनते हैं हम तग़ज़्ज़ुल में आज तुझ को 'रशीद' हासिल-ए-रोज़गार सुनते हैं