मुँह छुपाओ न तुम नक़ाब में जान यूँही आशिक़ की है अज़ाब में जान जूँ सी चुटकी में ले के मल डाली हम से आशिक़ की है अज़ाब में जान ख़ूबी-ए-हुस्न ने तिरी न रखी बाक़ी इक ज़र्रा शैख़ ओ शाब में जान किस की ज़ुल्फ़ों के पेच-ओ-ताब से है रात दिन मेरी पेच-ओ-ताब में जान सख़्त मुश्ताक़ है तुम्हारा दिल मुँह दिखाओ कभी तो ख़्वाब में जान एक दिन तुम ने की न बात कभू मर गए हम तो इस हिजाब में जान नित तिरे इंतिज़ार-ए-ग़ुस्ल से है बहर के दीदा-ए-हुबाब में जान मह ने ऐ शहसवार-ए-अर्सा-ए-हुस्न आक़िबत दी तिरी रिकाब में जान उस ने भर कर निगाह देखा था नहीं उस दिन से आफ़्ताब में जान सर-ए-आतिश जो अश्क-ए-रेजाँ था किसी आशिक़ की थी कबाब में जान 'मुसहफ़ी' था ज़ि-बस-कि आशिक़-ए-शेर मरते मरते रही किताब में जान