मुझ को भी उस से इश्क़ था उल्फ़त ग़ज़ब की थी उस को भी मुझ हक़ीर से चाहत ग़ज़ब की थी वो लड़की जो नसीब पे रोती थी रात भर गलियों में उस के हुस्न की शोहरत ग़ज़ब की थी हँसते हुए लबों को वो हल्के से काटना वल्लाह उस हसीन की आदत ग़ज़ब की थी जाने से उस के बाग़ में आलम ख़िज़ाँ का था सूखे गुलों में क़ैद वो वहशत ग़ज़ब की थी ख़ंजर रक़ीब का था तो तदबीर दोस्त की मक़्तल में 'ज़ोया' यार की शिरकत ग़ज़ब की थी