मुझ को जीने से फ़ाएदा भी नहीं और फिर मर्ज़ी-ए-ख़ुदा भी नहीं नहीं मा'लूम क्या मैं कहता हूँ तुम नहीं हो तो क्या ख़ुदा भी नहीं मौत अब ज़िंदगी भी है मुझ को जब मिरे दर्द की दवा भी नहीं सर-ए-बालीं वो मुस्कुराते हैं मेरी तक़दीर में शिफ़ा भी नहीं झिलमिलाता है सुबह का तारा अब तो जीने का आसरा भी नहीं दर-ए-दिलदार पाऊँ किया 'जावेद' कहीं दो-चार नक़्श-ए-पा भी नहीं