मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली तुझ से बिछड़ के ज़िंदगी दुनिया से जा मिली इक क़ुल्ज़ुम-ए-हयात की जानिब चली थी उम्र इक दिन ये जू-ए-तिश्नगी सहरा से आ मिली ये कैसी बे-हिसी है कि पत्थर हुई है आँख वैसे तो आँसुओं की कुमक बार-हा मिली मैं काँप उठा था ख़ुद को वफ़ादार देख कर मौज-ए-वफ़ा के पास ही मौज-ए-फ़ना मिली दीवार-ए-हिज्र पर थे बहुत साहिबों के नाम ये बस्ती-ए-फ़िराक़ भी शोहरत-सरा मिली फिर रूद-ए-बेवफ़ाई मैं बहता रहा ये जिस्म ये रंज है कि तेरी तरफ़ से दुआ मिली वो कौन ख़ुश-नसीब थे जो मुतमइन फिरे मुझ को तो उस निगाह से उसरत सिवा मिली ये उम्र उम्र कोई तआक़ुब में क्यूँ रहे यादों में गूँजती हुई किस की सदा मिली जिस की हवस के वास्ते दुनिया हुई अज़ीज़ वापस हुए तो उस की मोहब्बत ख़फ़ा मिली