सियाह है दिल-ए-गीती सियाह-तर हो जाए ख़ुदा करे कि हर इक शाम बे-सहर हो जाए कुछ इस रविश से चले बाद-ए-बर्ग-ए-रेज़-ए-ख़िज़ाँ कि दूर तक सफ़-ए-अशजार बे-समर हो जाए बजाए रंग रग-ए-ग़ुंचा से लहू टपके खिले जो फूल तो हर बर्ग-ए-गुल शरर हो जाए ज़माना पी तो रहा है शराब-ए-दानिश को ख़ुदा करे कि यही ज़हर कारगर हो जाए कोई क़दम न उठे सू-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद दुआ करो कि हर इक राह पुर-ख़तर हो जाए ये लोग रह-गुज़र-ए-ज़ीस्त से भटक जाएँ अजल क़वाफ़िल-ए-हस्ती की हम-सफ़र हो जाए ब-क़द्र यक-दो-नफ़्स भी गिराँ है ज़हमत-ए-ज़ीस्त हयात-ए-नौ-ए-बशर और मुख़्तसर हो जाए