मुझ में से मिरे जुब्बा-ओ-दस्तार नफ़ी कर रह जाऊँ अगर बाक़ी तो तशरीह मिरी कर सब इल्म-ओ-हुनर भूल के बचपन में चला जाऊँ ऐ साहब-ए-सहर ऐसी कोई जादूगरी कर दीवारों से बटते हैं ख़िरद-मंदों के ख़ित्ते तू दश्त-ए-जुनूँ में न ये दीवार खड़ी कर इक क़ाफ़िला प्यासों का गुज़रना है यहाँ से ऐ दश्त-ए-बला अपने सरापा को निरी कर मैं घर में ही पीता हूँ मगर यारों की ख़ातिर घर से तिरे मयख़ाने में आ जाता हूँ पी कर इक चाक गरेबाँ में है इक चाक है दिल में क्या होगा फ़क़त चाक-ए-गरेबान को सी कर जो ज़ुल्म की रह पर हैं उन्हें राह से भटका अच्छा भी कोई काम तू ऐ तीरा-शबी कर गर कुछ भी नहीं पास तो मिट्टी से ही भर ले ऐ साहब-ए-ख़ैरात तू दामन न तही कर