मुझे इन संग-रेज़ों को गुहर करना भी आता है शब-ए-तारीक को नूर-ए-सहर करना भी आता है हमारी ख़ामुशी भी मस्लहत के तहत है वर्ना ज़माने को हमें ज़ेर-ओ-ज़बर करना भी आता है ज़माना छीन ले ये ऐश-ए-दुनिया भी तो क्या ग़म है मुझे तो बे-सर-ओ-सामाँ गुज़र करना भी आता है वो अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद इक दिन पा ही जाते हैं जिन्हें दुश्वार राहों में सफ़र करना भी आता है ख़ुशी की छाँव में रहने के हम आदी तो हैं लेकिन ग़मों की धूप में 'शादाँ' बसर करना भी आता है