मुझे खा ही गया अपनों का ग़म आहिस्ता आहिस्ता ये दिल होता गया वक़्फ़-ए-अलम आहिस्ता आहिस्ता बढ़ाए जाइए मश्क़-ए-सितम आहिस्ता आहिस्ता ये दिल भी हो चला मानूस-ए-ग़म आहिस्ता आहिस्ता ब-ईं-रफ़्तार निकलेगा तिरे इक़बाल का सूरज अयाँ होता है जैसे सुब्ह-दम आहिस्ता आहिस्ता कभी उन की तरफ़-दारी कभी मुझ से वफ़ादारी खुला जाता है अब उन का भरम आहिस्ता आहिस्ता सुनेंगे अब उन्हीं दो तीन शर्तों पर मिरा क़िस्सा बयान-ए-मुख़्तसर हो कम से कम आहिस्ता आहिस्ता करें इस राज़ की उक़्दा-कुशाई आसमाँ वाले गिरे जाते हैं क्यों पस्ती में हम आहिस्ता आहिस्ता भला क्यूँकर न उठ जाए वक़ार-ए-आदमी 'हसरत' उठी दुनिया से जब रस्म-ए-करम आहिस्ता आहिस्ता