नजात ग़म से नहीं है मुमकिन मफ़र अलम से कभी नहीं है अगर यही ज़ीस्त है तो इस से निबाह कुछ दिल-लगी नहीं है ख़ुदा को जाने ख़ुदा न माने वो बंदगी बंदगी नहीं है जो दर्द-ए-क़ौम-ओ-वतन न जाने वो शायरी शायरी नहीं है जो इक इशारे पे मिट न जाए वो आदमी आदमी नहीं है जो दूसरों के न काम आए वो ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं है बहार आई तो है चमन में ख़िज़ाँ का लेकिन मिज़ाज ले कर फ़सुर्दा गुल हैं उदास ग़ुंचे शगुफ़्ता कोई कली नहीं है गुनाह क्यों ज़ीस्त हो न अपनी तबाह आलम न हो तो क्यूँ-कर जिस औज पर आदमी था पहले उस औज पर आदमी नहीं है सबा ब-सद-एहतिराम उन को सलाम कहना पयाम कहना अभी से आ कर वो क्या करेंगे अभी तो महफ़िल सजी नहीं है यही है 'हसरत' कलाम मेरा मिटा अंधेरा हुआ सवेरा कहीं भी अब तीरगी नहीं है कोई भी दिल अब दुखी नहीं है