मुझी से पूछ रहे हैं वो मेरा हाल-ए-ज़बूँ तो क्या मैं अपनी तबाही पे रौशनी डालूँ ज़बान-ए-हाल से दे कर मुझे पयाम-ए-सुकूँ तिरे ख़याल ने कुछ और कर दिया महज़ूँ सुना कि वज्ह-ए-तुलूअ'-ए-सहर हैं अहल-ए-जुनूँ तो ख़ुद ही टूट गया तीरगी-ए-शब का फ़ुसूँ तिरे सुकूत का मफ़्हूम कौन समझेगा तिरे सुकूत पे मैं भी अगर ख़मोश रहूँ जुनून-ए-शौक़ की अज़्मत पे तंज़ फ़रमा कर बढ़ा गए हैं वो कुछ और भी वक़ार-ए-जुनूँ ग़म-ए-हयात से पामाल हो के भी हम ने ग़म-ए-हयात को होने दिया न ख़्वार-ओ-ज़बूँ जो तुम को फ़िक्र-ए-निज़ाम-ए-चमन नहीं यारो तो लाओ मैं ही बहारों का एहतिमाम करूँ है जब से गर्दिश-ए-हालात पर निगाह मिरी मैं ख़ुद भी गर्दिश-ए-हालात की निगाह में हूँ 'अतीक़' शाइ'र-ए-इमरोज़ ही कहो न मुझे कि मैं तो शाइ'र-ए-मुस्तक़बिल-ए-हयात भी हूँ