मिरे लबों पे ग़म-ए-ज़िंदगी की बात नहीं कुछ मुझ को फ़िक्र-ए-इलाज-ए-ग़म-ए-हयात नहीं मैं आश्ना-ए-ग़म-ए-काएनात हूँ लेकिन मिरे मलाल से आगाह काएनात नहीं ग़म-ए-हयात को सीने से जो लगा न सके मिरी नज़र में वो शाइस्ता-ए-हयात नहीं बिना-ए-हुस्न-ए-रुख़-ए-काएनात हम भी हैं तुम्हीं से दिलकशी-ए-बज़्म-ए-काएनात नहीं हैं ज़िंदगी की बहारें उन्हें नसीब तो क्या जिन्हें शुऊ'र-ए-चमन-बंदी-ए-हयात नहीं किसे सुनाएँ ग़म-ए-ज़िंदगी के अफ़्साने यहाँ कोई भी तो आसूदा-ए-हयात नहीं तिरी जफ़ाएँ भी मुझ को अज़ीज़ हैं लेकिन ये क्या कि मुझ पे तिरी चश्म-ए-इल्तिफ़ात नहीं बला से इशरत-ए-इमरोज़ ख़्वाब हो कि ख़याल 'अतीक़' राहत-ए-फ़र्दा तो बे-सबात नहीं