मुझ को कहता है मुस्कुराने को जाने क्या हो गया ज़माने को मुझ को तूफ़ान क्या डुबो सकता दिल ही चाहा था डूब जाने को अपनी ही दास्ताँ समझ बैठी सुन के दुनिया मिरे फ़साने को बज़्म में तेरी हम चले आए अज़-सर-ए-नौ फ़रेब खाने को हम झुका कर जबीन-ए-शौक़ अपनी ख़ुद बुला लेंगे आस्ताने को हम छिड़कते रहे लहू अपना आशियाँ में बहार लाने को तिरी यादों ने रह-रवी की है जब भी चाहा तुझे भुलाने को अश्क बन कर चराग़ आते हैं मिरी पलकों पे जगमगाने को मैं सहर बन के आ गया हूँ 'सहर' दहर से तीरगी मिटाने को