मुझ को तुम से नहीं गिला कोई दर्द-ए-दिल की भी है दवा कोई क्या सुनाऊँ मैं क़िस्सा-ए-शब-ए-ग़म इब्तिदा है न इंतिहा कोई इत्तिफ़ाक़ात हैं ज़माने के तेरी महफ़िल से उठ गया कोई ज़ख़्म-ए-दिल मुस्कुरा उठा आख़िर दिल से नाला निकल पड़ा कोई राह-ए-शौक़-ए-तलब में ऐ हमदम ढूँड हरगिज़ न नक़्श-ए-पा कोई जुस्तुजू है तो उन की मंज़िल का मिल ही जाएगा रास्ता कोई मुस्कुराऊँ मैं किस तरह 'साबिर' चारागर ही नहीं रहा कोई