पैराहन-ए-तिलिस्म-ए-बहाराँ की ख़ैर हो अहल-ए-जुनूँ के तार-ए-गरेबाँ की ख़ैर हो गुलशन में आ के लौट गई है बहार-ए-नौ सब कह रहे हैं दश्त-ओ-बयाबाँ की ख़ैर हो सौदा-ए-सर यहाँ है वहाँ नाज़-ए-हुस्न है इस सर की ख़ैर या दर-ए-जानाँ की ख़ैर हो होने लगे हैं अहल-ए-नज़र अब जुनूँ-नवाज़ अहल-ए-ख़िरद तुम्हारे शबिस्ताँ की ख़ैर हो उन की निगाह-ए-नाज़ उठी है इसी तरह 'साबिर' तुम्हारे सब्र के दामाँ की ख़ैर हो