मुक़र्रेबीन में रम्ज़-आशना कहाँ निकले जो अजनबी थे वही अपने राज़-दाँ निकले हरम से भाग के पहुँचे जो दैर-ए-राहिब में तो अहल-ए-दैर हमारे मिज़ाज-दाँ निकले बहुत क़रीब से देखा जो फ़ौज-ए-आदा को तो हर क़तार में यारान-ए-मेहरबाँ निकले क़लंदरों से मिला मुज़्दा-ए-सुबुक-रूही जो बज़्म-ए-होश से निकले तो सर-गराँ निकले क़बीला-ए-हरम ओ क़ौम-ए-दैर ओ फ़िरक़ा-ए-रिंद हमारे चाहने वाले कहाँ कहाँ निकले? सुकूत-ए-शब ने सिखाया हमें सलीक़ा-ए-नुत्क़ जो ज़ाकिरान-ए-सहर थे वो बे-ज़बाँ निकले मियान-ए-राह खड़े हैं इस इंतिज़ार में हम कि गर्द-ए-राह हटे और कारवाँ निकले गुमाँ ये था कि पस-ए-कोह बस्तियाँ होंगी वहाँ गए तो मज़ारात-ए-बे-निशाँ निकले गिरे ज़मीं पे जो हफ़्त आसमाँ से टकरा के तो हर क़दम पे यहाँ और हफ़्त-ख़्वाँ निकले उफ़ुक़ से अपने तो धुँदला सा इक ग़ुबार उठा फिर इस के बा'द सितारों के कारवाँ निकले कभी कभी तो हर इक साँस पर हुआ महसूस कि जैसे क़ालिब-ए-आतिश-ज़दा से जाँ निकले समझ रहा था ज़माना जिन्हें नुफ़ूस-ए-जमाल वो सिर्फ़ चंद नफ़स-हा-ए-ख़ूँ-चकाँ निकले कमाल-ए-शौक़ से छेड़ा था जिन को मुतरिब ने वो राग साज़ के सीने से नौहा-ख़्वाँ निकले 'रईस' हुज्रा-ए-तारीक-जाँ को खोल तो दूँ? जो कोई आफ़त-ए-क़त्ताला-ए-जहाँ निकले