मुल्तफ़ित जब से निगाह-ए-नाज़ है और ही कुछ इश्क़ का अंदाज़ है गुनगुनाया नग़्मा-ए-दिल हुस्न ने सारा आलम गोश-बर-आवाज़ है फेर कर मुँह मुस्कुरा कर देखना ये सताने का नया अंदाज़ है मुझ को मुज़्तर दिल को बिस्मिल कर गई हाए क्या ज़ालिम निगाह-ए-नाज़ है बहर-ए-इस्याँ में सरापा ग़र्क़ हूँ हाँ मगर तेरे करम पर नाज़ है 'दर्द' से क्या पूछते हो राज़-ए-इश्क़ दर्द तो ख़ुद ही सरापा राज़ है