मुमकिन है शय वही हो मगर हू-ब-हू न हो रेग-ए-रवाँ भी देख कहीं आबजू न हो क़ाएम इसी तज़ाद के दम से है काएनात मैं आरज़ू हूँ जिस की मिरी आरज़ू न हो मंज़र बदल बदल के भी देखा है बारहा जो ज़ख़्म अब है आँख पे शायद रफ़ू न हो सहता रहा हूँ एक तसलसुल से इस लिए ये टूट-फूट ही मिरी वज्ह-ए-नुमू न हो मैं ख़ुद ही बुझने लगता हूँ जलते हुए चराग़ जिस रोज़ तेरी लौ से मिरी गुफ़्तुगू न हो देखो बदल के ज़ाविया अपनी निगाह का जो रू-ब-रू नहीं है वही रू-ब-रू न हो मेरे वजूद से है ये दुनिया-ए-रंग-ओ-बू लेकिन मिरा जहान फ़क़त रंग-ओ-बू न हो मुश्किल मिरी हदों का तअय्युन है 'आफ़्ताब' वो रौशनी भी क्या है कि जो चार सू न हो