मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब फिर सजा सकूँ अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ ये क्या तिलिस्म है कि तिरी जल्वा-गाह से नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ पर्दे गिरे हैं वो कि न जिन को उठा सकूँ किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमइन अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन में न आ सकूँ तेरी हसीं फ़ज़ा में मिरे ऐ नए वतन ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ 'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे हैं रक़्साँ वो ज़मज़मे ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ