मुमकिन नहीं कि फ़ैज़-ए-जुनूँ राएगाँ रहे ये भी तो इक निशाँ है कि हम बे-निशाँ रहे आजिज़ तिरी तलाश में कौन-ओ-मकाँ रहे अब जो तुझे तलाश करे वो कहाँ रहे बे-वासता नज़ारा-ए-शान-ए-जमाल कर ये भी है इक ख़ता कि नज़र दरमियाँ रहे तौफ़ीक़ दे कि पेश करूँ ग़म को इस तरह दुनिया को मेरे ग़म पे ख़ुशी का गुमाँ रहे शाम उन की इक अदा है सहर उन का एक नूर या'नी कि वो अयाँ न हुए और अयाँ रहे बख़्शा है मुझ को उन की नज़र ने ज़हे करम वो होश जिस पे बे-ख़बरी का गुमाँ रहे शौक़-ए-सुख़न फ़ुज़ूल है 'शाहिद' बग़ैर-ए-इश्क़ दिल में कोई ख़लिश हो तो मुँह में ज़बाँ रहे