कहीं मंज़िल कहीं रस्ता पुराना छूट जाता है सफ़र में ज़ीस्त के मंज़र सुहाना छूट जाता है रक़ाबत का सबब बनता है अक्सर रोज़ का मिलना ज़रा सी बात पे मिलना-मिलाना छूट जाता है बहुत अफ़्सोस होता है ज़ईफ़ी में बुज़ुर्गों को जवाँ बेटे का जब मज़बूत शाना छूट जाता है यही दस्तूर-ए-फ़ितरत है ख़िज़ाँ के दौर में अक्सर शजर के हाथ से पत्ता पुराना छूट जाता है समझ लीजे अजल का हम-सफ़र है वो बशर अब तो बहुत पहले से जिस का आब-ओ-दाना छूट जाता है सफ़र में हम-सफ़र मिल जाए जिस को चाँद का टुकड़ा फिर उस से दोस्त क्या सारा ज़माना छूट जाता है मता-ए-दहर पर ऐ 'नस्र' इतना नाज़ क्या करना अदम की राह में सारा ख़ज़ाना छूट जाता है