मुनफ़रिद रंग मिले फ़िक्र में जिद्दत निकले मैं अगर शे'र कहूँ इतनी तो उजरत निकले खिड़कियाँ खोल दो उड़ जाने दो ख़्वाहिश के परिंद वो जो सर में है समाई हुई वहशत निकले सोचता क्यों है बिछड़ जाने की निस्बत से मियाँ इस से पहले कि कोई मिलने की सूरत निकले उस की आँखों से छलक जाऊँ मैं आँसू बन कर ज़िंदगी में कभी इतनी तो सुहूलत निकले क्या करें हम तिरे अशआ'र पे तन्क़ीद 'नदीम' कब कोई नुक्ता-ए-तौहीन-ए-अदालत निकले