मुंतशिर सायों का है या अक्स-ए-बे-पैकर का है मुंतज़िर ये आईना क्या जाने किस मंज़र का है रेज़ा रेज़ा रात भर जो ख़ौफ़ से होता रहा दिन को साँसों पर अभी तक बोझ उस पत्थर का है वो किसी फ़रहंग का क़ैदी न अब तक हो सका वो शिकस्ता लफ़्ज़ मेरी रूह के अंदर का है हर कोई होने लगा है दिन को ख़्वाबों का असीर ख़ौफ़ हर इक आँख में इक दूर के मंज़र का है देख कर भी क्या करे 'मंज़ूर' उस का कर्ब है वो तो जुज़ आँखों के सर से पाँव तक मरमर का है