मुंतशिर तारे पिरो कर कहकशाँ पैदा करो भीड़ से अफ़राद की इक कारवाँ पैदा करो और सब कुछ बाद में ऐ साहिबान-ए-तख़्त-ओ-ताज सब से पहले मुल्क में अम्न-ओ-अमाँ पैदा करो सुर्ख़-रू कर दे तुम्हें इक बार फिर अक़्वाम में अपने अंदर ऐसी वज़्अ-ए-रफ़्तगाँ पैदा करो सई-ए-पैहम और ईमाँ लाज़िम-ओ-मलज़ूम हैं मिस्ल-ए-मर्वा पावँ से आब-ए-रवाँ पैदा करो आह से मज़लूम की आतिश-फ़िशाँ बेदार कर जो जला कर ख़ाक कर दे वो फ़ुग़ाँ पैदा करो ग़र्क़ कर दो ज़ालिमों को दौर-ए-इस्तिब्दाद को अर्क़-ए-पेशानी से बहर-ए-बे-कराँ पैदा करो बस्तियाँ आबाद कर दो शहर-ए-जाँ रौशन करो शो'ला-ए-सोज़-ए-निहाँ से बिजलियाँ पैदा करो हिजरतें कब तक करोगे चर्ख़-ए-कोहना के तले इक ज़मीं महफ़ूज़ और इक आसमाँ पैदा करो आसमाँ-बंदी करो हारो न हरगिज़ हौसला एक पर ही बस नहीं सात आसमाँ पैदा करो कुछ ज़रूरी तो नहीं 'शाहिद' कि लाओ जू-ए-शीर मश्क़-ए-तेशा के लिए कोह-ए-गिराँ पैदा करो