मुक़द्दर में लिखा है ग़म ही ग़म क्या उसी के हो के रह जाएँगे हम क्या दिल-ए-बर्बाद में बरसों रहे हैं ये ग़म क्या दर्द क्या रंज-ओ-अलम क्या ब-जुज़ रुस्वाई इस में कुछ नहीं है मोहब्बत क्या मोहब्बत का भरम क्या इरादा तर्क-ए-उल्फ़त का तो कर लूँ उठा सकता है दिल ऐसा क़दम क्या उन्हें तू 'राज़' देखेगा पशेमाँ तिरी आँखें न हो जाएँगी नम क्या