मुरत्तब हो के इक महशर ग़ुबार-ए-दिल से निकलेगा नया इक कारवाँ गर्द-ए-रह-ए-मंज़िल से निकलेगा हमारे मुँह से और शिकवा तुम्हारा हो नहीं सकता तुम्हारा नाम भी शायद बड़ी मुश्किल से निकलेगा न होगा गोशा-ए-दामन मिरा वाबस्ता-ए-मंज़िल न जब तक हाथ तेरा पर्दा-ए-मंज़िल से निकलेगा मिरी आँखें हैं बज़्म-ए-रंग-ओ-बू में मुंतज़िर तेरी नहीं मालूम तू कब तक हिजाब-ए-दिल से निकलेगा मैं अपने दिल को यूँ पेश-ए-नज़र 'सीमाब' रखता हूँ कि मेरा चाँद जब निकला इसी मंज़िल से निकलेगा