मुसाफ़िरत मिरी हर जुस्तुजू से ख़ाली है बस इक मदार में फिरने की ख़ू बना ली है तमाम वक़्त मैं शहर-ए-गुमाँ में रहता हूँ सुकूँ से रहने की मंतिक़ नई निकाली है हरीस आरियों की भेंट चढ़ गया चुप-चाप शजर पे अब कोई पत्ता न कोई डाली है हवा में भर गई है बू-ए-इश्तिहा हर सू किसी ग़रीब ने अपनी रिदा उछाली है लबों पे चाशनी और दिल में नफ़रतों का ज़हर ये आब-ओ-नार की संगत बड़ी निराली है बता रहा है ये पत्तों का मातमी सा शोर चमन से जल्द ही आँधी गुज़रने वाली है