मुसाफ़िर भी सफ़र में इम्तिहाँ देने से डरते हैं मोहब्बत क्या करेंगे वो जो जाँ देने से डरते हैं तिरी यादों के मौसम भी तुझे रुस्वा नहीं करते सुलगते हैं दिल-ओ-जाँ और धुआँ देने से डरते हैं शरीक-ए-ज़िंदगी है ए'तिबार-ए-ज़िंदगी वर्ना मकाँ मालिक किराए पर मकाँ देने से डरते हैं बुज़ुर्गों की कोई सुनता नहीं है इस ज़माने में बड़े छोटों के बारे में ज़बाँ देने से डरते हैं मिरे क़ातिल की मेरे घर से ही इमदाद होती है मिरे भाई मिरे हक़ में बयाँ देने से डरते हैं