था अजब सेमिनार का मौसम तब्सिरे हो रहे थे हर फ़न पर शायरी पर सभी का क़ौल था ये गर्द कितनी जमी है दर्पन पर आज क़िस्तों में धूप उतरी है पर बड़े कर्र-ओ-फ़र्र से उतरी है आज सूरज है डूबने को मगर धूप के नक़्श-ए-पा हैं आँगन पर आज बादल फटे हैं आँखों में आज सैलाब आने वाला है आज चेहरे के कोह टूटेंगे और चटानें गिरेंगी दामन पर कश्मकश में हैं तिनके छप्पर के ख़ाक हो जाएँ या ठिठुरते रहें बर्क़ ही बर्क़ है फ़ज़ाओं में ओस ही ओस है नशेमन पर आप मुस्लिम हैं आप के सर पर मुफ़्ती साहब का क़ौल उतरेगा कुफ़्र और शिर्क और बिदअ'त के फ़तवे आते नहीं बरहमन पर ख़ाल जिस ने 'नवाज़' उधेड़ी है वो ही दर्ज़ी है मेरे पैकर का वो ही गिन कर बताएगा तुम को कितने पैवंद हैं मिरे तन पर