मुसलसल रो रहा हूँ फिर भी क्यों रोने से डरता हूँ जिसे पाया नहीं अब तक उसे खोने से डरता हूँ बहुत ज़रख़ेज़ है दिल की ज़मीं मालूम है लेकिन वफ़ा के बीज इस मिट्टी में फिर बोने से डरता हूँ सुनहरा ख़्वाब बन कर इक अज़ाब आँखों पे उतरा था ज़माना हो गया पर आज भी सोने से डरता हूँ मैं जिस कश्ती में बैठा उस को साहिल ने डुबोया है किसी शाने पे अपना बोझ अब ढोने से डरता हूँ मुझे जिस ने भी अपनाया वो मुझ से खो गया 'काशिफ़' तिरे नज़दीक रह कर भी तिरा होने से डरता हूँ