मुसलसल तैरने वाला भी अक्सर हार जाता है समुंदर से जो बच निकले तो दरिया मार जाता है शराफ़त का मिरी चर्चा सर-ए-बाज़ार क्या पहुँचा जिसे देखो वही आ कर मुझे ललकार जाता है सर-ए-मक़्तल मैं जाँ-बख़्शी की उस से इल्तिजा कर के अगर सर को बचा लूँ तो मिरा किरदार जाता है हमें छू कर जो बन जाता है मिट्टी से खरा सोना वही इक रोज़ हम पारस को ठोकर मार जाता है हमें तल्क़ीन करता है जो हर लम्हा वो सज्दे में ख़ुदा जाने कि सच्चे दिल से कितनी बार जाता है मैं जब भी घर से निकलूँ हर तरफ़ इक शोर उठता है मियाँ दौड़ो वो देखो इश्क़ का बीमार जाता है जहाँ पर फ़र्ज़ को एहसान समझा जाए है 'तश्ना' तू अपना हक़ तलब करने वहाँ बे-कार जाता है