जहाँ को बाँट कर ख़ुशियाँ जो मुस्कानों में रहते थे वो महलों में नहीं 'तश्ना' बयाबानों में रहते थे हमारे घर में लाया कौन इन मसनूई फूलों को यहाँ पहले तो असली फूल गुल-दानों में रहते थे उन्हें भी शौक़-ए-दुनिया ने ग़ुलाम अपना बना डाला हमेशा ग़र्क़ जो तस्बीह के दानों में रहते थे उतर आए हैं सड़कों पर वो साग़र तोड़ कर अपने ग़म-ए-दौराँ से बे-परवा जो मय-ख़ानों में रहते थे ख़ता बस ये हुइ सच्चाइयों से मुँह नहीं मोड़ा वगर्ना हम भी उस के ख़ास मेहमानों में रहते थे वृद्धा-आश्रम में उन के आँसू कौन पोंछेगा हमारे गाँव में जो लोग दालानों में रहते थे जलाल आता था जिस दम हम फ़क़ीरों को तो ऐ 'तश्ना' लरज़ जाते थे वो भी जो कि ऐवानों में रहते थे