विदाअ' साथ तुम्हारे ही हो गया सूरज फिर उस के बा'द न हम को कहीं मिला सूरज कहीं उभर न सका रोज़-ओ-शब की महफ़िल में मैं दिन का चाँद रहा और रात का सूरज उठे जो हम से गिराँ-गोश तो हुआ मा'लूम हमें पुकार के कब का चला गया सूरज मिलन की शाम सही पर मिलन नसीब कहाँ तो चढ़ते चाँद की मय्यत में डूबता सूरज उस एक शाम को जिस के लिए थे चश्म-ब-राह ख़िलाफ़-ए-वक़्त बड़ी देर से ढला सूरज 'मुसव्विर' आओ उसी शो'ला-रूख़ की सम्त चलें सुना है ढलता नहीं उस के बाम का सूरज