तुझ बिन बहुत ही कटती है औक़ात बे-तरह

तुझ बिन बहुत ही कटती है औक़ात बे-तरह
जूँ-तूँ के दिन तो गुज़रे है पर रात बे-तरह

होती है एक तरह से हर काम की जज़ा
आमाल-ए-इश्क़ की है मुकाफ़ात बे-तरह

बुलबुल कर उस चमन में समझ कर टुक आशियाँ
सय्याद लग रहा है तिरी घात बे-तरह

पूछा पयाम-बर से जो मैं यार का जवाब
कहने लगा ख़मोश कि है बात बे-तरह

मिलने न देगा हम से तुझे एक-दम रक़ीब
पीछे लगा फिरे है वो बद-ज़ात बे-तरह

कोई ही मोर है तो रहे इस में शैख़-जी
दाढ़ी पड़ी है शाने के अब हाथ बे-तरह

'सौदा' न मिल कर अपनी तू अब ज़िंदगी पे रहम
है उस जवाँ की तर्ज़-ए-मुलाक़ात बे-तरह


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