मुसहफ़-ए-रुख़ का तुम्हारे जो सना-ख़्वाँ होता दिल-ए-बेताब मिरा हाफ़िज़-ए-क़ुर्आं होता मिस्रा-ए-बहर-ए-तवील आप ब-ईं क़ामत-ओ-क़द मैं वो मिस्रा नहीं जो आप पे चस्पाँ होता तेरे रॉकेट से भी ऐ यार मैं लेता टक्कर मेरे क़ब्ज़े में अगर तख़्त-ए-सुलैमाँ होता इस में कुछ तेरी नहूसत भी है शामिल वाइज़ वर्ना अल्लाह का घर ऐसा न वीराँ होता शैख़ लानी ही थी बोतल तो छुपा कर लाते देखता कैसे कोई इस पे जो दामाँ होता देखता तू जो छलकता हुआ मीना वाइज़ तेरी बधनी से भी अर्ज़ां तिरा ईमाँ होता होती ऐ क़ैस जो लैला की कोई और बहन साथ 'हाशिम' भी तिरे चाक-गरेबाँ होता